Friday, June 27, 2008

हंस की नजर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

"हंस" मासिक पत्रिका ने टेलीविजन पत्रकारिता पर जनवरी २००७ में एक विशेषांक निकला था और अजीत अंजुम उसके अतिथि सम्पादक थे ।जहाँ अंजुम जी अपने लेख में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के इन कारनामों के समर्थक बने हुए थे तो उसी अंक में कम से कम आधा दर्जन लेख और कहानियाँ ही अंजुम जी के तर्कों की खिलाफत कर रहे थे । ताज्जुब यह था की इनके लेखक भी इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े बड़े नाम थे । कहा जा सकता है की टीवी चैनल्स ने लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभाई है और कुछ मामलों में यह सच भी साबित हुआ लेकिन इस भूमिकाओ के पीछे भी मीडिया की प्रहरी की भूमिका कम और व्यावसायिक स्वार्थ ज्यादा था
  • अभी तक आम आदमी राजनेताओं को लाशों की राजनीती करने के लिए दोष दिया करता था लेकिन आरुशी मर्डर केस में मीडिया ने जो खेल खेला है उसे आप क्या कहेंगे ?
  • एक अबोध बालिका की निजी जिंदगी को गुलछर्रे बताकर जिस प्रकार से दिखाया गया है क्या उसकी इजाज़त कोई सभ्य समाज तो नहीं दे सकता ?
  • हमारे यहाँ परम्परा रही है की मृतक के बाद उसकी बुराइयों की चर्चा नहीं किया करते हैं । लेकिन कोई चैनल तो आरुशी की डायरी के अंश पढ़कर सुना रहा था तो कोई प्रेम कहानी बता रहा था।
  • एक चैनल का कहना था की सारा देश इस कांड की सच्चाई जानना चाहता है। पता नहीं की उस चैनल का देश कौन सा है ?
  • सिर्फ़ आरुशी की हत्या पर मीडिया को इतनी चिंता क्यों है ?
  • क्या भारत देश के राज्य उत्तर प्रदेश के (शहर / जिले) बांदा , एटा , मैनपुरी का नाम इन मीडिया वालो ने नही सुना है ? इन जिलों मेंशायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब दो चार हत्याएँ होती हों ! लेकिन यह हत्याएं मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बंटीहैं, चूंकि मरने वाले आरुशी जैसे साधन संपन्न घरानों के नहीं होते हैंदूसरे इन चैनल्स का देश दिल्ली औरउसकेआस पास ही समाप्त हो जाता है
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