Thursday, April 25, 2013

वो चले गये....

दादाजी इस दुनिया मे नही हैं। रहते तो पता नही खुश होते या नही, जब उन्हे पता चलता कि मै लेखक हो गया हूं। लेखक, बचपन से सुनता आ रहा हूं और अक्सर मै कुछ भी अपने मन की बकवास लेकर दादाजी के पास जाता और उन्हें सुनाता तो वे मेरी माँ से कहते, "देखना एक दिन ये अपनी जुबान का खाएगा"। पता नही वे ऐसा क्यों कहते थे मगर आज लगता है कि उनकी बात खरी हो रही है। वे अपने कहे को आशीर्वाद मे बदलते देखने के लिये आज मौजूद नही है,मगर मुझे लग रहा है कहीं न कहीं से वे मुझे ऐसा बनते देख रहे होंगे और मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे।

कविता और कहानियाँ मेरे लिये नया कुछ भी नही है। थोड़ा बहुत समझने लायक हुए तो खुद को इलाहाबाद के ऐसे माहोल में पाया जहाँ चारो तरफ़ लेखको की आत्मा घूमती थी और मैंने हर वक्त ख़ुद को इन लेखको से घिरा हुआ पाया। हमारे पुरखे वैसे तो मेरठ के एक गाव रजापुर मे रहा करते थे। लेकिन मूलतः उत्तर प्रदेश में जिला गाजियाबाद के छोटे से कस्बे मुरादनगर में दादाजी की नौकरी के कारण पापाजी के वक्त से ही आकर यहाँ बस गए थे । पापाजी को लगता था के ये छोटा सा क़स्बा पढ़ाई लिखाइ के लिया पर्याप्त नही है । क्यूंकि यहाँ सारे के सारे लोगों का एक ही धंधा, कविताई का। मेरे घर के आसपास तीन-चार ऐसे लोग भी रहते थे जिनका पढ़ाई लिखी से कोई वास्ता नही था फ़िर भी कवियों की संगत में रहकर वो ख़ुद को महा कवि से कम नही आंकते थे। घर से चंद कदमो की दूरी पर था एक चौक जिसका नाम था परिवर्तन चौक। बाहर से आने वालों के लिये रेफ़रेंस से लेकर पोस्टल एड्रेस तक़। टैक्सियां या आटो रिक्शे और तांगे सबको पता बताया जाता था परिवर्तन चौक के पास जाना है भाई।

समय तो जैसे उड़ता चला गया। हम भी और लोगो की तरह थोड़ा बड़े होने लगे थे और नये दोस्त बनाने की गरज से घर के आसपास खिंची लक्ष्मण रेखा पार कर मुहल्ले की ओर जाने लगे थे। पतंग से लेकर क्रिकेट तक़ सभी के लिये टीम वहीं बन पाती थी। बाबूजी को जब पता चला तो उन्होने फ़रमान जारी कर दिया कि उधर नज़र आये तो बिना मुरव्वत के धुनाई होगी। स्कूल तक़ पाबंदी जारी रही। कालेज मे प्रवेश लेने की बात आई तो मैने मां से कहा कि मै मोदी कालेज मे पढना चाहता हूं। मोदी कालेज उस समय छात्र राजनीति और दादागिरी दोनो के लिये मशहूर था। माँ ने सीधे सीधे इस मामले से हाथ खींच लिये और कहा कि तू जान तेरे पापा जाने। लाख चिरौरी के बावजूद जब मां नही मानी तो पापाजी से डरते-डरते खुद ही कहने की हिम्मत जुटाई और जैसे ही कहा तो जवाब ये मिला नेतागिरी करनी है या सायरी वायरी को भूत सवार है। पहले बता दो आख़िर तुम्हे बनना क्या है ? वहां पढना था तो काहे कान्वेंट की फ़ीस भरते रहे। सरकारी स्कूल वालो को भी वहां एडमिशन मिल जाता है। मेरे स्कूल के सारे साथियो ने वहां प्रवेश ले लिया था। पापाजी अंत तक़ राजी नही हुए और मुझे बगल के कालेज को छोड़ सात सो किलोमीटर दूर स्थित इलाहाबाद में पढ़ाई के लिए जाना पड़ा। सिर्फ़ सायर, लेखक ना बनूं इस लिये पापाजी इच्छा के अनुरूप बी ऐ तक़ वहां पढाई की। हालांकि ग्रेजुयेशन के तत्काल बाद एक भैया के तेवर देख कर मैंने पत्रकार बनने की पूरी तैयारी कर ली थीं, मगर पता नही क्यूँ तब मुझे पत्रकार बनना स्तर का नही लगता था।

पता नही क्यों जो जो नही बनना चाहा वही बनता गया। पत्रकार नही बनना चाहता था कुछ कुछ बना और वैसे ही लेखक भी। पत्रकारिता में स्नातकोत्तर करने के बाद लगा कि पत्रकारिता ही अपने लिये ठीक रहेगी। लेकिन जब तक पत्रकार बनते तब तक़ लखनऊ विश्वविद्यालय मे अतिथि प्रवक्ता के पद पर निर्वाचित हो चुके थे। यहाँ से राजनीति के गुर मजबूरन सीखने पड़े, मुझे ऐसा मालूम हुआ की यहाँ तो बिना राजनीती किए जीया ही नही जा सकता, वो रोमांच मुझे राजनिती की ओर खींचने लगा और मां ने जब इसकी शिकायत पापाजी से कि तो उन्होने कहा बड़ा हो गया है। अपना भला बुरा समझता है। जाने दो जो जी मे आये करे कुछ नही कर सकेगा तो कबाड़ी बन जायेगा।

मास्टरी से ज़ल्द ही मोहभंग हो गया। मां अक्सर कहती थी कुछ कर रे। तभी अचानक़ एक अख़बार मे रिपोर्टर की नौकरी हाथ लग गई।

ऐसा लगा कि सब सैटल हो जायेगा मगर हुआ नही। अड़ियल स्वभाव आड़े आता रहा। नौकरी लगने के साथ ही छोड़ने का सिलसिला जो तब शुरू हुआ वो आज भी जारी है। कहीं कुछ समय के लिये काम करना शुरू होता नही है कि लोग पूछने लगते है कब छोड़ रहा है। कभी दोपहर को थक कर घर जाकर सो जाओ तो मां पूछ लेती है छोड़ दिया क्या रे। ये इमेज हो गई है अपनी। खैर पापाजी से मिलने वाली आर्थिक मदद के दम पर मै भी पाकिस्तान कि तरह निरंकुश होता चला गया। पत्रकारिता मे कुछ साल मौज करने के बाद पापाजी की नौकरी छूट गई और एक दिन अचानक दादाजी हम सब को बिलखता छोड़ कर चले गये। मै चाह कर भी उस दिन रो नही पाया। उस दिन मैंने बहुत कुछ लिखा, मेरा लिखा हर शब्द  मेरी आँख से फ़ुट कर आया था, यही वजह थी की मै रोया नही।

आज अपनी पहचान में कुछ कहने के लिए है, लेकिन जिसको सुनना था, वो चले गये....