Friday, March 27, 2009

तू क्यूककर लिखता है


मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के खड़ी बोली कहे जाने वाले मेंरठ जिले में हुआ। लेकिन पढ़ाई मई की भूमि बना इलाहाबाद। प्रयाग में लगी महादेवी वर्मा जी की प्रतिमा हमेशा ही मुझे उत्सुक करती की मैं भी कुछ लिखा करूँ। बेहद खड़ी बोली में अक़्सर मेरे पुराने साथी पूछते है की " भले मानस तू क्यूककर लिखता है ?" यह 'क्यूककर' मेरी समझ में नहीं आया। 'क्यूककर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह? अब आपको क्या बताऊँ कि मैं क्यूककर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। मै अपनी उस कुर्सी पर बैठ जाता हूँ जिसका एक पैर पिछले कई सालो से पापा के लाख कहने के बावजूद नही बन पाया है क्यूंकि अब मुझे उस पर बीतने में मजा आने लगा है , कागज़-कलम पकड़ता हूँ और बस लिखना शुरू कर देता हूँ। मेरी गाय जाने उस वक्त क्यूँ शोर मचा रही होती है मैं उनसे बातें भी करता हूँउसी वक्त मेरी बहन और भाई के बीच वाक् युद्ध शुरु हो जाता है मै उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, उसी वक्त जब माँ पुंरानी थपकी से चारपाई पर महीनो से बिछी चादर को धोने के लिए कूटती है। ठक ठक की उसकी आवाज में सामिल है एक और संगीत और वो है पापा का स्कूटर स्टार्ट करनापापाजी जब अपने पुराने स्कूटर को लाख कोसिसो के बाद भी स्टार्ट नही कर पते है और घंटो उसमे जुटे रहते है की ये सोचकर की शायद ये दिन बहुरेंगे और ये सुरीली आवाज के साथ स्टार्ट हो जाएगाये सुब इसलिए कहा क्यूंकि लिखने के लिए कम से कम इतना सन्नाटा तो होना चाहिए हीअपने लिएरूह्ह्फ़्जाभी तैयार करता हूँअगर कोई मिलने वाला जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर लिखे जाता हूँअब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं झक मारने के लिए लिखता हूँमुझे झक मरने या यूँ कहो की लिखने की बुरी तरह लत पड़ी हुई हैमैं लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या कुछ छूट गया है जिन्दगी मेंमैं नहीं लिखता, हकीकत यह है कि कलम मुझे लिखती हैमैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँयूँ तो मै शोध कार्य में लगा हूँ , कभी कभी कुछ अच्छा भी कह लेता हूँ, कई दर्द ऐसे है जिन्हें मेरी कलम ने कागज पे गहरे दर्द के साथ उकेरा है लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे तरीके से खुद को डुबो दिया की असल दर्द से ज्यादा दर्द उन लेखो में गया , कौन है वो जिसने ये लिखे हैं, जिन पर आए दिन कोई कोई हसता रहता हैजब कलम मेरे हाथ में हो तो मैं सिर्फ़ वो सकस होता हूँ जिसे हिन्दी आती है अंग्रेजी और कोई और भाषा, ये सब तो मेरी कलम जानती हैकोई भी बात जिसपर मुझे लिखना होता है वो बात मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होती है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होतीमैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई बात निकल आएकहानीकार, उपन्यासकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, कलम घिसता हूँ और कागज फूंकता रहता हूँ मगर मजाल जो कोई बात दीमाग से निकल जाएजब कोई बात नही निकलती तो आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँबड़ी कोफ़्त होती हैकरवटें बदलता हूँउठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँबच्चों का झूला झुलाता हूँघर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँजूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँछोटे छोटे chuho ने जो baasi roti के tukde bikhere है उनको उठा कर अपने छोटे से घर में बने उनके बड़े से घर के पास रखता हूँ मगर कम्बख़्त बात जो मेरी जेब में पड़ी होती है मेरे ज़हन में नहीं utarti और मैं तिलमिलाता रहता हूँजब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होतासुना है कि हर बड़ा आदमी बाथरूम में सोचता हैमगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकतालेकिन हैरत का किस्सा यह है कि मैं अपनी उसी प्रेमिका की कसम खाकर कहता हूँ जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे ख्याल में मौजूद है कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं कैसे लिखता हूँअक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी वही ख्याल वाली प्रेमिका मेरे पास आई और उसने मुझसे यह कहा है, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।” मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद--खुद कोई बात उछलकर बाहर जाती हैमैं खुद को इस दृष्टि से जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-