Thursday, August 13, 2009

जब इश्क की बात चली

________________________________________________________
जब इश्क की बात चलती है तो मुझे 'वाली असी' का एक शेर याद आता है-
अगर तू इश्क में बरवाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता।
सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जहां प्रेमी ने प्रेमिका की खुशी के लिये बलिदान दिये। बर्बाद हुये। कहानी  'उसने कहा था' के लहनासिंह की प्रेमकथा 'तेरी कुडमाई हो गयी?' के जवाब- 'धत्त' में पूरी जाती है। पर इसका निर्वाह लहनासिंह अपनी कुर्बानी देते हुये प्रेमिका के पति की जान बचाकर करता है. जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुंडा' के बाबू नन्हकू सिंह की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती है पर गंडासा तब तक चलता रहता है जब तक राजा-रानी सकुशल नहीं हो जाते। कारण वो कभी रानी को चाहते थे (जब वो कुंवारी थीं) । शादी नहीं हो पायी पर प्रेमपरीक्षा में पास हुये-अव्वल। 
प्रेम परीक्षा में पतियों का मामला काफी ढीला रहा। चाहे वो राम रहे हों या पांडव। जब उनकी पत्नी को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी तब ये महान लोग धर्मपालन, नीतिगत आचरण में लगे थे।
बिछडते वक्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों, किसी ने मुड के किसी की तरफ नहीं दखा।

Sunday, July 26, 2009

समलैंगिकता -कितनी सही , कितनी ग़लत ?

न्यायलय ने समलैंगिकता को सही ठहरा दिया। कानूनन ये न्यायोचित हो गया की यदि दो एक लिंग के व्यक्ति साथ रहकर सुख और संतुष्टि प्राप्त कर रहे हैं तो इसमे कुछ ग़लत नही है। लेकिन इधर न्यायलय का फ़ैसला आया उधर देशभर में कोहराम मच गया। क्या धार्मिक संगठन , क्या राजनितिक पार्टियाँ, और क्या समाज के ठेकेदार। सभी एक सुर में इस निर्णय की खिलाफत करने मैदान में उतर आए। किसी ने इसे समाज के लिए अभिशाप बताया तो कोई संस्कृति के लिए खतरा बता रहा है। इनमे वो लोग भी शामिल हैं जिनके स्वयं के कृत्यों से संस्कृति अनेकों बार शर्मसार हुई है। जब ये धार्मिक संगठन मन्दिर -मस्जिद को मुद्दा बनाकर लड़ते हैं तो संस्कृति प्रभावित नही होती । जब जींस और बुर्के पर बेबुनियादी फतवे जारी होते हैं तो संस्कृति को नुक्सान नही होता । जिस समाज में नारी को देवी का स्थान दियागया है उसी समाज में जब नारी अपमानित होती है तो संस्कृति सुर्स्क्षित रहती है । लेकिन अगर दो लोग अपनी मर्ज़ी से साथ रहना चाहे तो संस्कृति पर आंच आने लगी। यहाँ पर तो बात समलैंगिको की है ,जब एक लड़का और लड़की अपनी मर्ज़ी से साथ नही रह सकते तो समलैंगिकता को इतनी आसानी से कैसे पचा सकता है ये समाज ।ये सच है की भारतीय समाज में जहा अभी तक अंतरजातीय -विवाह को पूर्ण रूप से मान्यता नही मिली है। समलैंगिकता स्वीकार करना इतना आसान नही है, लेकिन ये कहना की ये संस्कृति को दूषित करेगा, सभ्यता के लिए खतरा बन जाएगा, ठीक नही है ।

Wednesday, June 17, 2009

ये कहीं और सुनने को न मिलेंगे।


कल अचानक बादलों को घिरते देखा। हालाँकि बारीश अभी दूर है लेकिन मैं जब भी पानी से भरे बादलों को देखता हूँ तो उस पिता की याद आती है जो अभी-अभी अपनी लाड़ली बेटी को विदा करके अपने सूने हो चुके घर के एक वीरान से कोने में अकेला खड़ा है। यह पिता एक बार फिर अपनी बेटी के लिए एक हाथी या एक घोड़ा बनना चाहता है जिस पर बैठकर उसकी बेटी सवारी कर सके। उस बादल को जरा गौर से देखिए, जो अब आपके छज्जे को छूकर निकलने वाला है। वह अपनी बेटी की याद में ही हाथी और घोड़ा बनने की कोशिश कर रहा है। ध्यान से सुनिए, यह गड़गड़ाहट की आवाज नहीं है, उस बादल की आत्मा में अपनी बेटी के साथ बिताए बचपन के दिन उमड़-घुमड़ रहे हैं। और यह बादल जो थोड़ा सी हेकड़ी में, दौड़ लगा रहा है, छोटा भाई है। इसकी चाल पर न जाइएगा। यह बादल हलका लग सकता है लेकिन अंदर से यह भी भरा हुआ है। इसकी बहन ने छह साल तक इसकी चोटी की है। अभी तो यह दौड़ रहा है लेकिन रात में जब थक जाएगा, तब घर के पिछवाड़े या किसी पेड़ की ओट में जाकर बिना आवाज किए सुबकेगा। और एक दुबला-पतला बादल जो कुछ कुछ उदास-सा यूँ ही इधर-उधर टहल रहा है, विदा हो चुकी बहन की छोटी बहन है। यह हमेशा दो चोटियाँ करती थी और बड़ी बहन हमेशा उसे डाँटती हुई कहती थी-एक करा कर। मुझे गूँथने में आलस आती है। इस बादल को देखेंगे तो लगेगा इसके चलने में न सुनाई देने वाली हिचकियाँ हैं। इन्हीं हिचकियों के कारण इसमें भरे पानी का अंदाजा लगा सकते हैं। और सबसे आखिर में जो साँवला बादल है वह माँ का आँचल है। उसका आँचल कभी न कहे जा सकने वाले दुःख से भारी हो गया है। अभी भी वह अपनी बेटी की यादों में खोया है जिसमें सुख-दुःख की बातें हैं, उलाहना है, प्रेम में काँपता, सिर पर रखा हुआ हाथ है। यह बादल जब भी बरसेगा, इसे बरसता देख बाकी बादल भी बरसेंगे। अपने को कोई भी नहीं रोक पाएगा। सब बरसेंगे। और ये बरसेंगे तो चारों तरफ जीवन के गीत गूँजेंगे। थोड़ा-सा वक्त निकालकर इन्हें सुनना। ये कहीं और सुनने को न मिलेंगे।

दिल की बात


जब भी लिखना
जी भर के लिखना
जुबान की नहीं,

बस
दिल की बात लिखना।


हमने देखा है,
दिल की बात,
जब दिमाग से होकर,
जुबान पर आती है,

तो
बात बिल्कुल बदल जाती है


यह अलग बात है,
जमाने को वही बात पसंद आती है

माँ गुजर जाने के बाद



ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत 
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद 

अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद

जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा 
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद

अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद

आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक 
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद

वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे 
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद

Monday, June 15, 2009

मुझे अपनी बाहों मे भर लो


नदी के
के इस पार
शब्दों का मेला है
कोई तुम्हे -
पुकार रहा -माँ
दीदी
पत्नी
दोस्त
प्रेमिका
इस भीड़ के लिए तुम
देह के दर्पण
का
अलग -अलग
हिस्सा हो
किसी के लिए बिंदिया
किसी के लिए राखी हो
आँचल मे प्रसाद सा भरा प्यार
सभी को चाहिए
लेकीन किसी के लिए वैशाखी हो
फिर भी -अपनी सम्पूर्णता के
महा एकांत मे
उस निर्जन मे
नदी के उस पार
मै कह रहा हूँ
आओ मेरे पास
मै हूँ सम्बंधो से परे
एक
शब्द -केवल प्यार
तुम्हारी चेतना
तुम्हारा जागरण
तुम्हारा स्वप्न
तुम्हारी जड़ ,
पूर्ण साकार चंदन सा महकता
वन मै ही हूँ
आओ
मुझे अपनी बाहों मे भर लो

मुझे अपने पास रख लो


अपनी हथेली की रेखाओं मे
मेरा नाम लिख लो
मुझे अपने पास रख लो
अपनी आँखों के पिंजरे मे
मुझे कैद कर लो
अपने मन रूपी गमले मे
मुझे गुलाब सा उगा लो
अपने आँचल के छोर मे
एक स्वर्ण सिक्के सा बाँध लो
मुझे अपने पास रख लो
उड़ते हुवे अश्व पर बैठा
एक राजकुमार
अपने हर स्वप्न मे
मुझे मान लो
अपनी बांह मे बंधी ताबीज
के भीतर
एक मन्त्र सा मुझे भर लो
अपनी गोल बिंदिया सा
मुझे अपने माथे पर
लगा लो
अपने हाथो मे रत्न जडित चुडियो सा
मुझे पहन लो
मुझे
अपने पास रख लो
मै तुम्हारी
पूजा की थाली मे
रोज -दीपक सा जल जाउंगा
मै तुम्हारी जिंदगी मे
शाश्वत -आस्था बनकर रह जाउंगा
मै तुम्हारी साँसों मे
मोंगरे सा महक जाउंगा
मै तुम्हारे ओंठो पर
गुनगुनाता हुवा सा -एक गीत रह जाउंगा
मै प्यार के कोमल कपास से बना तकिया हूँ
तुम्हारी तन्हाई की बांहों के लिए
भींचने के कम मे आ जाउंगा
मुझे अपने पास रख लों

Friday, June 12, 2009

माफ करना।


देखकर हुस्न तेरा
ग़र हो जाऊं शायर-दीवाना
तो
माफ करना।
बंधके खिंचा चला आऊं तेरे सदके पे बार-बार
तो
माफ करना।
हो जाए ग़र इश्क तुझे हौले-हौले मुझसे
तो
माफ करना।
उड़ जाए नींद रातों की तेरी ग़र मुझसे
तो
माफ करना।
बेचैन है ये दिल-ए-नादां ग़र थाम लो लगाम
तो अच्छा,
ख़ता हो जाए वरना
तो
माफ करना।

Tuesday, March 31, 2009

मैं क्यों लिखता हूँ


मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ...लेकिन खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता, पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ।अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूं। हो सकता है, भूख की हालत में की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है। हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए। यह विड़्म्बना है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता। लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है? मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ। रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए की भगवान् को यही मंज़ूर है। वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है.
मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत पति से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं उसके पति को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है।
किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा। इस कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा.
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती. मेरी हीरोइन चकले की एक बाजारू औरत हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी आँखें, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे लेखो का विषय बन सकते हैं। उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती मैं उसके हर रूप रंग को लिखता हूँ और घरेलू औरतों की हर अदा को नज़रअंदाज कर जाता हूँ।
इसलिए मेरी रूह बेचैन रहती है............

Friday, March 27, 2009

तू क्यूककर लिखता है


मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के खड़ी बोली कहे जाने वाले मेंरठ जिले में हुआ। लेकिन पढ़ाई मई की भूमि बना इलाहाबाद। प्रयाग में लगी महादेवी वर्मा जी की प्रतिमा हमेशा ही मुझे उत्सुक करती की मैं भी कुछ लिखा करूँ। बेहद खड़ी बोली में अक़्सर मेरे पुराने साथी पूछते है की " भले मानस तू क्यूककर लिखता है ?" यह 'क्यूककर' मेरी समझ में नहीं आया। 'क्यूककर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह? अब आपको क्या बताऊँ कि मैं क्यूककर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। मै अपनी उस कुर्सी पर बैठ जाता हूँ जिसका एक पैर पिछले कई सालो से पापा के लाख कहने के बावजूद नही बन पाया है क्यूंकि अब मुझे उस पर बीतने में मजा आने लगा है , कागज़-कलम पकड़ता हूँ और बस लिखना शुरू कर देता हूँ। मेरी गाय जाने उस वक्त क्यूँ शोर मचा रही होती है मैं उनसे बातें भी करता हूँउसी वक्त मेरी बहन और भाई के बीच वाक् युद्ध शुरु हो जाता है मै उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, उसी वक्त जब माँ पुंरानी थपकी से चारपाई पर महीनो से बिछी चादर को धोने के लिए कूटती है। ठक ठक की उसकी आवाज में सामिल है एक और संगीत और वो है पापा का स्कूटर स्टार्ट करनापापाजी जब अपने पुराने स्कूटर को लाख कोसिसो के बाद भी स्टार्ट नही कर पते है और घंटो उसमे जुटे रहते है की ये सोचकर की शायद ये दिन बहुरेंगे और ये सुरीली आवाज के साथ स्टार्ट हो जाएगाये सुब इसलिए कहा क्यूंकि लिखने के लिए कम से कम इतना सन्नाटा तो होना चाहिए हीअपने लिएरूह्ह्फ़्जाभी तैयार करता हूँअगर कोई मिलने वाला जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर लिखे जाता हूँअब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं झक मारने के लिए लिखता हूँमुझे झक मरने या यूँ कहो की लिखने की बुरी तरह लत पड़ी हुई हैमैं लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या कुछ छूट गया है जिन्दगी मेंमैं नहीं लिखता, हकीकत यह है कि कलम मुझे लिखती हैमैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँयूँ तो मै शोध कार्य में लगा हूँ , कभी कभी कुछ अच्छा भी कह लेता हूँ, कई दर्द ऐसे है जिन्हें मेरी कलम ने कागज पे गहरे दर्द के साथ उकेरा है लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे तरीके से खुद को डुबो दिया की असल दर्द से ज्यादा दर्द उन लेखो में गया , कौन है वो जिसने ये लिखे हैं, जिन पर आए दिन कोई कोई हसता रहता हैजब कलम मेरे हाथ में हो तो मैं सिर्फ़ वो सकस होता हूँ जिसे हिन्दी आती है अंग्रेजी और कोई और भाषा, ये सब तो मेरी कलम जानती हैकोई भी बात जिसपर मुझे लिखना होता है वो बात मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होती है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होतीमैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई बात निकल आएकहानीकार, उपन्यासकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, कलम घिसता हूँ और कागज फूंकता रहता हूँ मगर मजाल जो कोई बात दीमाग से निकल जाएजब कोई बात नही निकलती तो आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँबड़ी कोफ़्त होती हैकरवटें बदलता हूँउठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँबच्चों का झूला झुलाता हूँघर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँजूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँछोटे छोटे chuho ने जो baasi roti के tukde bikhere है उनको उठा कर अपने छोटे से घर में बने उनके बड़े से घर के पास रखता हूँ मगर कम्बख़्त बात जो मेरी जेब में पड़ी होती है मेरे ज़हन में नहीं utarti और मैं तिलमिलाता रहता हूँजब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होतासुना है कि हर बड़ा आदमी बाथरूम में सोचता हैमगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकतालेकिन हैरत का किस्सा यह है कि मैं अपनी उसी प्रेमिका की कसम खाकर कहता हूँ जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे ख्याल में मौजूद है कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं कैसे लिखता हूँअक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी वही ख्याल वाली प्रेमिका मेरे पास आई और उसने मुझसे यह कहा है, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।” मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद--खुद कोई बात उछलकर बाहर जाती हैमैं खुद को इस दृष्टि से जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-

Wednesday, March 18, 2009

एक स्वपन आँख में आया था

एक स्वप आँख में था

कोख में उसे छुपाया था ।
कुछ दिन भी न छिप पाया , झट गोद में आकर मुस्काया।
हसी खेल में गोद से भी खिश्का मेरा आँचल था ।
मै जरा ठिठका फ़िर आँचल तक सिर से फिसला ।
जब घर से बाहर वो निकला था , चाहा कि वो उड़ना सीखे ।
जब उड़ा तो क्यों नैना भीगे। 
उसके जाने पर घर मेरा क्यूँ लगता भुतहा सा। 
डेराघर में बिखरी उसकी चीज़ें : 

पैंट पुरानी,

कसी कमीजे,
टूटे खिलौने,
बदरंग ताशबने धरोहर,
मेरे पास मुस्काती उसकी तस्वीरें जब तब मुझे रूलाती है ।
उसकी यादें आँसू बन कर मेरे आँचल में छुप जाती है।
फोन की घन्टी बन किलकारी मनं में हूक उठाती है।
पल दो पल उससे बातें कर ममता राहत पाती है। 
केक चाकलेट देख कर पर पानी आँखों में आता है।
जाने क्योंकर मन भाता पकवान न अब पक पाता है।
भरा भगौना दूध का दिन भर ज्यों का त्यों रह जाता है ।
दिनचर्या का खालीपन हर पल मुझे सताता है। 
कब आएगा मुन्ना मेरा ?
कब चहकेगा आँगन ?
कब नज़रो की चमक बढ़ेगी ?
कब दूर होगा धुँधलापन ????

Thursday, February 26, 2009

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........


इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ।
तो क्या हुआ जो जिन्दगी हर कदम पर मारती है ठोकर।
हर बार फ़िर संभल कर मै उसे एक अरमान बनने निकला हूँ।
डूबता हुआ सूरज कहता है मुझसे, कल फ़िर आऊंगा।
मै उस कल के लिए आसमान बनने निकला हूँ।
इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ

कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ

Sunday, February 15, 2009

तुम मुझ को अच्छे लगते हो ।

एक बात कहूँ गर तुम सुनते हो। तुम मुझ को अच्छे लगते हो ।
कुछ चंचल से.......
कुछ चुप -चुप से.......
कुछ पागल- पागल लगते हो।
एक बात कहूँ गर तुम सुनते हो। तुम मुझ को अच्छे लगते हो
हैं चाहने वाले और बुहत......
फीर तुम में है एक बात अलग......
तुम अपने-अपने लगते हो ।
एक बात कहूँ गर तुम सुनते हो। तुम मुझ को अच्छे लगते हो ।
ये बात-बात पर खोजाना.....
कुछ कहते-कहते रुक जाना......
क्या बात है हम से कह डालो , ये किस उलझन में रहते हो।
एक बात कहूँ गर तुम सुनते हो। तुम मुझ को अच्छे लगते हो।

मै अकेला था कहाँ अपने सफर में.....


मै अकेला था कहाँ अपने सफर में.....
साथ मेरे छाव बन चलती रही तुम.....

तुम के जैसे चांदनी हो चंद्रमा मे,
आब मोती मे प्रणय आराधना मे,
चाहता है कोंन मंजील तक पहुंचना,
जब मीले आनंद पथ की साधना मे,
जन्म जन्मो मै जला एकांत घर मे,
और मेरे खवाब मे पलती रही तुम,
साथ मेरे छाव बन चलती रही तुम....
मै चला था पर्वतो के पार जाने,
चेतना के बीज धरती पर उगाने,
छु गए लेकिन मुझे हर बार गहरे,
मील के पत्थर वीदा देते अजाने,
मै दीया बनकर तामस मे लड़ रहा था,
ताप मे बन हीम-गलती रही तुम,
साथ मेरे छाव बन चलती रही तुम....
रह नही पाए कभी थके हारे,
प्यास मेरी ले गए हर सीन्धू खारे,
राह जीवन की कठीन कांटो भरी,
काट दी दो चार सूधीयों के सहारे,
सो गया मै हो थकन की नींद के वस्,
और मेरे स्वप्न मे पलती रही तुम,
साथ मेरे छाव बन चलती रही तुम....