Saturday, October 16, 2010

आरम्भ है प्रचंड

आरम्भ है प्रचंड
बोले मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो
आन बाण शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो

आरम्भ है प्रचंड
बोले मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो
आन बाण शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो
आरम्भ है प्रचंड

मन करे सो प्राण दे
जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है
मन करे सो प्राण दे
जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है

कृष्ण की पुकार है
ये भगवत का सार है
की युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो या
पांडवों का नीद हो
जो लड़ सका है वोही तो महान है

जीत की हवस नहीं
किसी पे कोई वश नहीं
कया ज़िन्दगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं
तो मौत से भी क्यूँ डरे
ये जाके आसमान में दहाड़ दो

आरम्भ है प्रचंड
बोले मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो
आन बाण शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो
आरम्भ है प्रचंड

हो दया का भाव
या की शौर्य का चुनाव
या की हार का वो घाव
तुम ये सोच लों
हो दया का भाव
या की शौर्य का चुनाव
या की हार का वो घाव
तुम ये सोच लों

या की पूरे भाल पर
जला रहे विजय का
लाल लाल ये गुलाल
तुम ये सोच लों

रंग केसरी हो या
मृदंग केसरी हो या
की केसरी हो ताल
तुम ये सोच लों

जिस कवी की कल्पना में
ज़िन्दगी हो प्रेम गीत
उस कवी को आज तुम नकार दो
भीगती नसों में आज
फूलती रगों में आज
आग की लापत का तुम बघार दो

आरम्भ है प्रचंड
बोले मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो
आन बाण शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो
आरम्भ है प्रचंड
आरम्भ है प्रचंड
आरम्भ है प्रचंड

Saturday, August 14, 2010

भारतीय सिनेमा


भारतीय सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने हिंदी सिनेमा का इतिहास बदल दिया, पर वास्तविकता कुछ और है. दरसल इसके लिए निर्देशक-लेखक को बधाई नहीं दी जानी चाहिए. शक्ति सामंत की फिल्म आराधना के गीतों ने न जाने कितने युवाओं के मन में अपने सपनों की रानी की कल्पना को शक्ल दे दी थी. उस दौर के युवकों ने न जाने कितनी हसीनाओं को रूप तेरा मस्ताना गीत सुनाकर दिल दिया होगा. इस फिल्म ने उस दौर के आशिकों के दिल में इश्क़ की आग लगा दी थी, लेकिन यह फिल्म शक्ति दाका ओरिजनल कांसेप्ट न होकर हॉलीवुड की टू इच हीज ऑन की नक़ल मात्र थी. इसी तरह ऋृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म अभिमान ने जया बच्चन को फिल्मफेयर बेस्ट एक्ट्रेस का पुरस्कार दिलवाया था. यह फिल्म ए स्टार इज बॉर्नकी नक़ल थी. 90 के दशक में महेश भट्ट की सुपरहिट फिल्म साथी से पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहसिन खान एवं आदित्य पंचोली स्टार बन गए थे. जबकि साथी को मिलने वाली सफलता और अवार्ड के सही हक़दार स्कारफेस के लेखक थे, क्योंकि यह सुपरहिट फिल्म भी एक नक़ल थी.
नरेंद्र बेदी की खोटे सिक्के एवं फिरोज़ खान की धर्मात्मा से लेकर रामू की सरकार जैसी फिल्मों को हिंदी सिनेमा में क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए याद किया जाता है, लेकिन यह सारे बदलाव दूसरे मुल्क़ों की कहानियों को चुराकर किए गए. 1980 में ऋषि कपूर स्टारर फिल्म क़र्ज़ ने सुभाष घई को शीर्ष निर्देशकों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया, लेकिन तब शायद ही कोई जानता होगा कि यह फिल्म 1960 में आई हॉलीवुड फिल्म द रिइंकारनेशन ऑफ पीटर प्राउड की नक़ल थी. रवि चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म द बर्निंग ट्रेन वर्ष 1975 में आई जापानी फिल्म द शिंकनसेन दैबाकुहा की नक़ल थी. अ
शोक कुमार की हास्य पटकथा वाली बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म शौक़ीन हॉलीवुड की फिल्म द ब्वॉयज नाइट आउट की नक़ल थी. राकेश रोशन द्वारा निर्देशित फिल्म खून भरी मांग, जिसे तीन फिल्म फेयर अवार्ड मिले, वह भी ऑस्ट्रेलियन लघु फिल्म रिटर्न टू एडेन से प्रेरित थी. मुकुल आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म अग्निपथ को दो फिल्मफेयर अवार्ड मिले और बेस्ट एक्टिंग के लिए अमिताभ बच्चन को नेशनल फिल्म अवार्ड मिला, जिसके हक़दार वे लोग कतई नहीं थे. निर्देशक संजय ग़ढवी के मुताबिक़ अमेरिका में अच्छे लेखक हैं, जबकि यहां अच्छे लेखकों की कमी है, इसलिए प्रेरणा लेने में कोई बुराई नहीं है. ग़ौरतलब है कि उनकी फिल्म मेरे यार की शादी है, जूलिया रॉबटर्‌‌स की सुपरहिट फिल्म माई बेस्ट फ्रेंड्‌स वेडिंग की नक़ल थी. बॉलीवुड में कलाकारों के कॉस्ट्यूम और नाच-गाने पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है, जबकि हॉलीवुड में फिल्म की स्क्रिप्ट और प्रोडक्शन हाउस ज़्यादा मायने रखते हैं. बॉलीवुड में वेस्टर्न फिल्मों की नक़ल का स़िर्फ नए लोग ही नहीं करते बल्कि इस मामले में इंटेलिजेंट इडियट आमिर खान भी पीछे नहीं है. उनकी सुपरहिट फिल्म गजनी बॉलीवुड की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर एक बिलियन रुपये से अधिक का कारोबार किया. यह फिल्म साउथ की सूर्या स्टारर गजनी की रीमेक थी और साउथ वाली गजनी हॉलीवुड फिल्म मोमेंटो की नक़ल थी. मतलब वही चोरी का क़िस्सा. ग़ौरतलब है कि मोमेंटो को वर्ष 2002 में बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए नामांकित किया गया था. बॉलीवुड की नक़ल करने की इस आदत पर वर्ष 2006 में फोर स्टेप प्लान नामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी.
वर्ष 1940 में आई महबूब खान की फिल्म औरत को सत्रह साल बाद मदर इंडिया के नाम से दोबारा बनाया गया, वह भी वर्ष 1937 में आई हॉलीवुड फिल्म द गुड अर्थ से प्रेरित थी. बॉलीवुड की ऑल टाइम सुपरहिट फिल्म शोलेका निर्माण सात हॉलीवुड फिल्मों की प्रेरणा से हुआ था. उनमें वंस अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट (1968), स्पैगिटी वेस्टर्न, द वाइल्ड बंच (1969), पैट गैरेट एंड बिली द किड (1973) और बच कैसिडी एंड द संडेंस किड (1969) आदि प्रमुख हैं. अमिताभ बच्चन की पा 1996 में आई हॉलीवुड फिल्म जैक की नक़ल है. अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म एक्शन रिप्ले ब्रैड पिट की सुपरहिट फिल्म द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन से प्रेरित बताई जा रही है. हासिल फेम निर्देशक तिग्मांशु धूलिया कहते हैं कि उनकी ओरिजनल कहानी पर आधारित फिल्म को कोई भी प्रोड्यूसर फाइनेंस नहीं करना चाहता. तिग्मांशु को अपनी फिल्म के निर्माण के लिए अपने दोस्तों पर निर्भर रहना पड़ा था. इस इंडस्ट्री में स़िर्फ निर्देशकों और कहानीकारों को ही हॉलीवुड की नक़ल करने का भूत नहीं सवार है, बल्कि निर्माता भी किसी फिल्म में पैसा लगाने से पहले यह निश्चित कर लेते हैं कि अमुक फिल्म हॉलीवुड की किसी फिल्म की नक़ल है या नहीं. ऐसी सैकड़ों फिल्में हैं, जिन्हें हॉलीवुड की फिल्मों से नक़ल करके तैयार किया गया है. इन फिल्मों के हिट हो जाने के बाद निर्देशक, निर्माता और कलाकार पुरस्कार लेने के लिए कतार में खड़े नज़र आते हैं. इनमें से कइयों को अवार्ड मिल भी जाते हैं. पुरस्कार क्या, पद्मश्री तक मिल जाती है. अवार्ड देने से पहले और बाद में ज्यूरी मेंबर यह सोचने की ज़हमत तक नहीं उठाते कि क्या सचमुच यह लोग इन पुरस्कारों के हक़दार हैं भी या नहीं.

उधर का माल इधर

अभिमान 1973- ए स्टार इज बॉर्न 1954
धर्मात्मा 1975- द गॉड फादर 1972
रफूचक्कर 1975- सम लाइक इट हॉट 1959
क़र्ज़ 1980- द रिइंकारनेशन ऑफ पीटर प्राउड 1960
द बर्निंग ट्रेन 1980- द शिंकनसेन दैबाकुहा 1975
शौक़ीन 1981- द ब्वॉयज नाइट आउट 1962
जांबाज़ 1981- डुअल इन द सन 1946
सत्ते पे सत्ता 1982- सेवन ब्राइड्‌स फॉर सेवन ब्रदर्स 1954
खून भरी मांग 1988- रिटर्न टू एडेन 1983
तेज़ाब 1988- स्ट्रीट्‌स ऑफ फायर 1984
साथी 1990- स्कारफेस 1983
दिल है कि मानता नहीं 1991- इट हैपंड वन नाइट 1934
जो जीता वही सिकंदर 1992- बे्रकिंग अवे 1979
चमत्कार 1992- ब्लैक बियडर्‌‌स गोस्ट 1968
बाज़ीगर 1993- ए किस बिफोर डाइंग 1991
खलनायिका 1993- द हैंड दैट रॉक्स द क्रौडल 1992
मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी 1994- द हार्ड वे 1991
अकेले हम अकेले तुम 1995- क्रैमर वर्सेस क्रैमर 1979
याराना 1995 - स्लीपिंग विथ एनेमी 1991
पापी गुड़िया 1996- चाइल्ड्‌र्स प्ले 1988
चोर मचाए शोर 1997- ब्लू स्ट्रीक
गुलाम 1998- ऑन द वाटर फ्रंट 1954
दुश्मन 1998- आई फॉर एन आई 1996
मोहब्बतें 2000- डेड पोएट्‌स सोसाइटी 1989
क़सूर 2001- जैग्ड ऐज 1985
कांटे 2002- रिजर्वायर डॉग्स 1992
राज़ 2002- वाट लायज बिनिथ 2000
धूम 2003- द फास्ट एंड द फ्यूरियस 2001 एवं ओसियंस एलेवन 2001
जिस्म 2003- बॉडी हीट 1981
कोई मिल गया 2003- ई. टी. द एक्सट्रा टेरेसट्रियल 1982
हम तुम 2004- वेन हैरी मेट सैली 1989
मुन्ना भाई एमबीबीएस 2003- पैच एडम्स 1998
मर्डर 2004- अनफेथफुल 2002
सलाम नमस्ते 2005- नाइन मंथ्स 1995
ब्लैक 2005- द मिराकल वर्कर 1962
बंटी और बबली 2005- बोनी एंड क्लायड 1967
सरकार 2005- द गॉड फादर 1972
रंग दे बसंती 2006- ऑल माई संस 1948 एवं जीसस ऑफ मांट्रील 1989
कृष 2006- पे चेक 2003
चक दे इंडिया 2007- मिराकल 2004
भेजा फ्राई 2007- डिनर डे कॉन्स 1998
लाइफ इन ए मेट्रो 2007- द अपार्टमेंट 1960
हे बेबी 2007- थ्री मेन एंड अ बेबी 1987
वेलकम 2007- मिक्की ब्लू आइज 1999
सिंह इज किंग 2008- मिराकल्स 1989
दोस्ताना 2008- नाउ प्रोनाउंस यू चक एंड लैरी 2007
युवराज 2008- रेन मैन 1988

Thursday, July 29, 2010

जब उसकी धुन में रहा करते थे।
हम भी चुप चाप जिया करते थे।

आँखों में प्यास हुआ करती थी।
दिल में तूफ़ान उठा करते थे।


किसी वीराने में उससे मिलकर।
दिल में कई फूल खिला करते थे।

लोग आते थे ग़ज़ल सुनने को।
हम उसकी बातें किया करते थे।
घर की दीवार सजाने की खातिर।
हम उसका नाम लिखा करते थे।

कल जब उसको देखा तो याद आया।
हम भी कभी इश्क किया करते थे।

Saturday, June 12, 2010

मुस्कान के पीछे का दर्द

ऐसी तो बिलकुल नही थी वो, उसकी मुस्कान के पीछे जो दर्द था उसे हर किसी के लिए समझ पाना नामुमकिन था। कहते है की शादी दो परिवारों, दो आत्माओ का मिलन है, पर न जाने क्यूँ दिलों के बंधन तो आज भी खुले है। मेरी दोस्त क्या थी और क्या हो गयी। लंबा अरसा हो गया शादी को एक छोटा बच्चा भी है । आज कितनी उदास है ये तो नही कह सकता लेकिन कल कितनी हसमुख थी , इसका अंदाजा हलकी बारिस के बाद सतरंगी मोसम में महकते फूलों पर चहकते पक्षियों को देख कर लगाया जा सकता है। क्या शादी का मायने यही है की व्यक्ति की निजी आजादी का खो जाना, खो जाना उसकी मुस्कान का, उसके सपनो का। कहते है की शादी कोई जाल नही, वो तो एक डोर है जिसमे आदमी जन्म भर के लीये बंध जाता है। लेकिन उसके लिए  शादी एक जाल हो गयी जिसमे वो फस गयी। उसके मन में पति के तानो का जवाब देने की काशीश  रहती है। पुरुषवादी समाज में उसका जी चाहता है की वो कह सके....


जानते हो, एक दबी हुई इच्छा है कि
मै ऑफिस से आऊँ, और तुम घर पर रहना
आकर तुम्हे कहूँ
जान, आज काम ज्यादा था
इतना थक गयी की कि पुछो मत
तुम्हारा ही काम अच्छा है
घर मे रहते हो, सारा दिन सोये रहते हो....

जानते हो, जी चाहता है कि
मै भी मचल के कहूँ
जान, तुम ऐसे क्यों रहते हो
हमारा भारतीय परिधान धोती कुर्ता
कितना अच्छा लगता है
क्यो तुम हर दिन अंग्रेज बन इठलाते हो

जानते हो, कुंडली मारकर एक इच्छा दबी बैठी है कि
एक दिन शान से कहूँ
जानते हो दाल चावल का भाव
इतने महंगे सामान
मेरी जेब से आते हैं
तुम्हारे घरवाले थोड़ी ना लाते है।

पति पत्नी मिलकर जीवन को जीयें ऐसा कहती है वो लेकिन उन दोनों में कोन है जो अपने धरम को सही ढंग से नही निभा पा रहा। वो मेरी दोस्त है इसलिए उसकी तरफदारी करूँगा तो आप मुझ पर तरफदारी का इल्जाम लगेंगे। लेकिन जब वो मेरी दोस्त है तो उसके तरफदारी करना मेरा धरम है, लेकिन आज सिर्फ उसको पक्ष लेने से दोस्ती का धरम पूरा नही हो जाता। उसके जीवन की गाडी पटरी पर आने का नाम नही ले रही। उसका जीवन साथी अपने धरम को निभा सकने में कितना सफल है नही पता, क्यूंकि एक दिन उसने कहा....

याचना नही है, बता रही हूँ कि अब जीना चाहती हूँ...
बहूत हो गया
अब तलक तुम्हारे बताये रास्ते पर जीती गयी,
जीती गयी या यूँ कहूँ की जीवन को ढो़ती गयी।
पर अब ऐसा नही होगा
हाँ
तुम्हे कोई दोष नही दे रही हूँ
ना ही अपनी स्थिती को
जायज या नाजायज
बताने के लिये लड़ रही हूँ।
मै बस इतना कह रही हूँ
कि
आगे से अब सब बदलेगा
मै अपने शर्तो पर अपने आपको रखूँगी
और जीवन को ढो़ने के बजाय जीऊँगी।
हाँ मेरे जीवन मे
अगर तुम चाहो तो
तुम भी शामिल रहोगे।
यह न्योता नही है
बतला रही हूँ,
तुम चाहो तो मेरे हमकदम बनकर साथ चल सकते हो।
एक आसमान जिसमे हम दोनो का
अपना अपना अस्तित्व हो
वो जमीं
जिसमे हम दोनो की अपनी अपनी जड़े हों
वो मौसम
जिसमे हम दोनो की खुशबु हो
ऐसे वातावरण मे जहा
हम दोनो साँस ले सकें।
पर अगर तुम्हे ये मन्जूर ना हो
तो भी
मै बता रही हूँ।


अकेले जीवन जीना बोझ लगता है, लेकिन आज वो ऐसा कह कर खुद को अकेले में हल्का महसूस करती  है। हमेसा ही पति पत्नी के बीच 'मै' का अहम् टकराता रहा तो एक दिन.....

कभी कभी किसी मोड़ पर रूककर
टटोलती हूँ, अपने आपको
सोचती हूँ
क्या तुम सही थे?

कई बार सोचती हूँ
और जब तुम याद दिलाते हो
कि आज भी तुम हो
तब बेचैनी बढ जाती है

पर सोचो ना
"तुम हो" तुमने यह जताया
पर "मै भी हूँ"
क्या तुम यह जान सके?

"मेरे होने" को तुम अनदेखा करते रह गये
तुम्हारा होना इतना हावी हो गया कि
मुझे खुद को बचाने के लिये
तुम्हारी गली छोड़नी पड़ी

"तुम हो" मै जानती हूँ
पर "मै" भी "हूँ"
तुम नही जान पाये
"मै" वही जी पाऊँगी
जहाँ "मेरा होना" भी होगा

यही सोचकर
फिर से चल पड़ी हूँ
पर तुम्हे बताकर जाना चाहती हूँ
कि जब तुम्हे लगे कि
"तुम्हारे" साथ "मेरा" भी होना
तुम्हे परेशान नही करता
आ जाना
फिर इस अनंत गगन मे
"हम" रहेंगे
मै और तुम से अलग
"हम" बनकर ।

दोस्त मै उम्मीद करूँगा की तुम ऑफिस से आकर कह सको की बहुत थक गयी हो, मै दुआ करूँगा की तू जी सको हम बनकर....

Monday, February 15, 2010

वैलेन्टाइन दिवस

सोचता हूँ कि कुछ साल पहले १४ फ़रवरी के दिन कितने खतरे मोल लेकर हम दोनों मिले थे। तब कुछ ही महीने का साथ था। जानते थे कि मिलने में खतरा है, कि संस्कृति के रक्षक कभी भी पकड़ सकते हैं और फिर जलूस भी निकाल सकते हैं किन्तु लगता था कि उनसे डरना गलत होगा और हम मिले थे। मिलकर खाना भी खाया, संस्कृति के रक्षकों से बचने को थोड़े अधिक मंहगे रेस्टॉरेन्ट में गए थे।कोई यह भी कह सकता है कि यह करना क्या इतना ही आवश्यक था? हमें लगता था कि आवश्यक था।यदि हममें उस दिन साथ खड़े होने का साहस न होता तो शायद हममें परिवार के कुछ लोगों के विरोध के सामने खड़े होने का भी साहस न होता। यदि एक बार साहस दिखा दो तो बार बार साहस दिखाने का साहस आ जाता है। यदि शुरु में ही डर जाओ तो सदा ही डरने की आदत बन जाती है। इतने लंबे अरसे बाद १४ फ़रवरी के ही दिन आज उसने माँ को फोन किया था, खाना बनाना आता है बता रही थी । फिर मैंने बात की। पूछ रही थीं कि वैलेन्टाइन दिवस कैसा मन रहा है तो मैं बताया जिन्दगी के लिए भाग दौड़ कर रहा हूँ । वो हँस रही थीं और कह रही थीं आह, आज का वैलेन्टाइन दिवस ऐसा दौड़ भाग वाला ! पीछे से वह कहे जा रही थी कि नहीं, हमने मनाया, हमने मनाया और हम मना रहे हैं और मनाएँगे।
सच तो यह है कि आज का वैलेन्टाइन दिवस उन सभी पिछले वैलेन्टाइन दिवसों की पराकाष्ठा है, चरम है। उस सबसे पहले वाले का, प्रेम के पहले वर्षों में मनाए गयों का, जब पता था कि चाहे जो हो जाए विवाह करेंगे ही, लेकिन विवाह करने की स्वीकृति नही मिली, नही नही परिवार ने तो दी थी लेकिन खुदा को मंजूर न था । क्यूँ साथ नही है ये चर्चा करना अब फिजूल है । हम साथ आज भी है परन्तु अलग अलग अपना भविष्य बनाते, काम करते, संघर्ष करते। अब जीवन में स्थायित्व आ रहा है। दोनों का अलग अलग अपना घर है, आज जल्दी से एक रेस्टॉरेन्ट में जाकर हड़बड़ी में खाना खाया. लिफ्ट न चलने पर नयी बनती उसी मंजिल पर जहाँ देखने वाला कोई न होता था, जहाँ हम अक्शर जाया करते थे, उसी बन चुके घर की मंजिल पर हाथ पकड़ सीढ़ी चढ़कर गए, लेकिन अलग अलग, बस खवाबों में, यह सब क्या वैलेन्टाइन दिवस नहीं है? भले ही अलग अलग हो लेकिन प्रेम तो साथ आज भी है और अभी अकेले में जो खाना बनाया और कुछ अधजली मोमबत्तियों को ढूँढकर, मेज पर एक इकलौता गुलाब लगाकर अकेले ही उसके अहसास में खाना खाया यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। मैं यह नहीं कहूँगा कि यह ही वैलेन्टाइन दिवस है, क्योंकि तब वे पहले वाले सब दिवस छोटे पड़ जाएँगे और वे सब खतरे जो हमने उठाए थे वे भी छोटे बन जाएँगे। परन्तु यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। जैसे आज पिछले सब दिवस याद आ रहे हैं वैसे ही यह भी कभी भविष्य में याद आएगा और शायद यह भी एक मील का पत्थर कहलाए।

Saturday, February 6, 2010

खुद को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ

जिन्दगी जीते-जीते लगा कि खुद को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ । ये बात शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ , कि जो निभती जा रही है ; वो ना तो अपनी है, और ना ही किसी मायने मे जिन्दगी। पलट कर नजरें दौड़ाई , साहिल बिल्कुल कोरा था। समय की लहर शायद सारे निशान अपने संग समेटे चली गई ।।जिन्दगी अपनी रफ्तार से चलती गई ; पता नहीं , कब मेरा ’आत्म ’ कहीं ठिठककर खड़ा हो गया । कुछ बेचारगी थी और थोड़ा आत्म-संभ्रन - कि तनिक देर घुम-फिरकर फिर वहीं अपने पास आ जाउँगा । आत्म-संभ्राति के मोह का पर्दा जब खिसका , तो पाया कि मेरा वर्तमान बेबस हो गया है - दूर जाती जिन्दगी को भी नहीं छोड़ सकता और पीछे छूटे विकलांग , अपाहिज वजूद को भी संग लिए चलना चाहता है। सिसकता हुआ आज ,भूत की तस्वीरों के रंग निचुड़ता देख रहा है ; मजबूर है । आने वाले कल के पर कोइ इबरत नहीं उभरेगी - जानता भी है । पर अपनी रंगहीन स्याही वाली कलम चलाए जा रहा है, रोए जा रहा है , गुनगुनाए जा रहा है............