Saturday, February 6, 2010

खुद को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ

जिन्दगी जीते-जीते लगा कि खुद को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ । ये बात शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ , कि जो निभती जा रही है ; वो ना तो अपनी है, और ना ही किसी मायने मे जिन्दगी। पलट कर नजरें दौड़ाई , साहिल बिल्कुल कोरा था। समय की लहर शायद सारे निशान अपने संग समेटे चली गई ।।जिन्दगी अपनी रफ्तार से चलती गई ; पता नहीं , कब मेरा ’आत्म ’ कहीं ठिठककर खड़ा हो गया । कुछ बेचारगी थी और थोड़ा आत्म-संभ्रन - कि तनिक देर घुम-फिरकर फिर वहीं अपने पास आ जाउँगा । आत्म-संभ्राति के मोह का पर्दा जब खिसका , तो पाया कि मेरा वर्तमान बेबस हो गया है - दूर जाती जिन्दगी को भी नहीं छोड़ सकता और पीछे छूटे विकलांग , अपाहिज वजूद को भी संग लिए चलना चाहता है। सिसकता हुआ आज ,भूत की तस्वीरों के रंग निचुड़ता देख रहा है ; मजबूर है । आने वाले कल के पर कोइ इबरत नहीं उभरेगी - जानता भी है । पर अपनी रंगहीन स्याही वाली कलम चलाए जा रहा है, रोए जा रहा है , गुनगुनाए जा रहा है............