Tuesday, March 31, 2009

मैं क्यों लिखता हूँ


मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ...लेकिन खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता, पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ।अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूं। हो सकता है, भूख की हालत में की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है। हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए। यह विड़्म्बना है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता। लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है? मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ। रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए की भगवान् को यही मंज़ूर है। वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है.
मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ पति से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत पति से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं उसके पति को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है।
किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा। इस कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा.
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती. मेरी हीरोइन चकले की एक बाजारू औरत हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी आँखें, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे लेखो का विषय बन सकते हैं। उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती मैं उसके हर रूप रंग को लिखता हूँ और घरेलू औरतों की हर अदा को नज़रअंदाज कर जाता हूँ।
इसलिए मेरी रूह बेचैन रहती है............

8 comments:

Mukul said...

एक शायर का ख्याल था
है सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं
शायद वो तुम्हारी इस पोस्ट पर एकदम सटीक है
जिन्दगी को इस नज़रिए से समझाने के लिए बधाई

anjumabid.blogspot.com said...

bhai aab ki kalam mein jadoo hain man ki baat to nahi kah sakta kaunki main janta hoon mun to aap ka ek baccha waqui accha hain muje bhi mila lo bhai .

Anonymous said...

aisa kah pana yakeenan asambhav hai, bahut khoob

Anonymous said...

wakai me chake ki aurat ke dard ko aapne apni lekhni ka hissa banaya, ye badi baat hai, aapne bahut sundar prastut kiya hai

Anonymous said...

aap pados ke ladke ke ishq ko ratti bhar bhi ahmiyat nhi dete, aisa aap kah rahe hai, lekin aap uska jikr bhi kar rahe hai aur uske baare me chahe ek line hi sahi likh bhi rahe hai, ye virodhabhaas kyun..... Sahista Khan

Anonymous said...

Mukul jee aapne sahi kaha hai ki sabse madhur geet wo hai jo dard ke sur me gaya jata hai....

Ritesh chaudhary said...

aap yakeena sahi kah rahi hai

Ritesh chaudhary said...

samarthan