जिन्दगी जीते-जीते लगा कि खुद को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ । ये बात शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ , कि जो निभती जा रही है ; वो ना तो अपनी है, और ना ही किसी मायने मे जिन्दगी। पलट कर नजरें दौड़ाई , साहिल बिल्कुल कोरा था। समय की लहर शायद सारे निशान अपने संग समेटे चली गई ।।जिन्दगी अपनी रफ्तार से चलती गई ; पता नहीं , कब मेरा ’आत्म ’ कहीं ठिठककर खड़ा हो गया । कुछ बेचारगी थी और थोड़ा आत्म-संभ्रन - कि तनिक देर घुम-फिरकर फिर वहीं अपने पास आ जाउँगा । आत्म-संभ्राति के मोह का पर्दा जब खिसका , तो पाया कि मेरा वर्तमान बेबस हो गया है - दूर जाती जिन्दगी को भी नहीं छोड़ सकता और पीछे छूटे विकलांग , अपाहिज वजूद को भी संग लिए चलना चाहता है। सिसकता हुआ आज ,भूत की तस्वीरों के रंग निचुड़ता देख रहा है ; मजबूर है । आने वाले कल के पर कोइ इबरत नहीं उभरेगी - जानता भी है । पर अपनी रंगहीन स्याही वाली कलम चलाए जा रहा है, रोए जा रहा है , गुनगुनाए जा रहा है............
4 comments:
bhai tumhari lekhni ko padh kar ehsaas hota hai ki wakai me kuch to hai tumhare sabd jalo me
bahut achha likha hai
बहुत अच्छा लिखा है सर आपने मुझे लिखने में मद्दत मिलेगी .................
Itni badi baat ko itne kam shabdo me bayan karne ke liye aapka dhanywad, aapko hamesa aapse unda lekho ki ummed rahegi..Rakesh
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